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गाजे बाजे के साथ वापसी

पुष्कर द्विवेदी

प्रकाशक : विश्वविद्यालय प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :99
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5246
आईएसबीएन :81-7124-532-3

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पुष्कर द्विवेदी द्वारा लिखा गया हास्य-व्यंग्य संग्रह

Gajey Bajey Ke Satha Vapsi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘गाजे-बाजे के साथ वापसी’ व्यंग्य-संग्रह मेरी इस विधा का तीसरा पड़ाव है। एक दर्जन से अधिक प्रकाशित विविध विधाओं की पुस्तकों में व्यंग्य-संग्रह की यह तीसरी पुस्तक है। व्यंग्य लेखन जिस तेजी के साथ हो रहा या होता है, उसका कारण है हमारे आस-पास की सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक विसंगतियाँ। चाहे व्यक्तिगत स्तर पर हो, चाहे सामाजिक और चाहे राजनीति से प्रभावित हो, सर्वत्र जिस प्रकार से असहजता और विद्रूप की स्थितयों से गुजरना हो रहा है, वही लेखक को या मुझे व्यंग्य के लिए बाध्य करता है।

लेखक भी चूँकि परिवार और समाज के बीच ही रहता है। इसी कारण सीधे-सीधे जब वह अपने परिवेश के साथ संवाद करने और स्थिति को समझने-समझाने में स्वयं को असमर्थ पाता है, तो वह इस विद्या के जरिए न केवल वस्तुस्थिति पर प्रहार करता है, वरन स्वयं को तनावमुक्त बनाकर उस परिवेश में नई ऊर्जा के साथ जुड़ जाता है।
आज व्यक्ति, समाज और देश में राजनीति, नेताओं व इससे जुड़े लोगों ने जो परिवेश रचा है, वह नितान्त अहेतुक है। अत्यन्त विडम्बनापूर्ण है, समाज व आम आदमी की वास्तविक तकलीफों की उपेक्षा कर हमारे तथाकथित जनसेवक निजी स्वार्थों, हवालों, घोटालों में घुट रहे हैं तथा देश की अस्मिता का गला घोंटते हुए सिर्फ सरकारें गिराने और बनाने में लगे हैं। ऐसी स्थितियाँ हों तो इन विसंगतियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। ये स्वतः व्यंग्य के माध्यम से प्रकट हो ही जाती हैं।

लेखक कभी-कभी स्वतः और स्वयं को भी पात्र बना लेता है। जो स्वयं पर कटाक्ष नहीं कर सकता वह दूसरे पर करने का सच्चा अधिकारी नहीं होता। जो होना चाहिए पर नहीं होता, जो नहीं होना चाहिए पर होता है, इसी को जब लेखक बताता है जो वह व्यंग्य के रूप में प्रकट होता है। इस विद्या को मैंने अपने पूर्वजों (बाबा, दादी, पिताश्री) में भी पाया। शायद इस विद्या को मैंने वंशानुगत भी प्राप्त किया हो।

इस पुस्तक में प्रकाशित अधिकांश व्यंग्य प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। एक साथ-एक जिल्द में जब पाठक इसका अवलोकन करेंगे तो उनकी एक दृष्टि बनेगी जो मुझ जैसे लेखक-व्यंग्यकार को दिखा-बोध कराने में सहायक सिद्ध हो सकेगी। इसी भावना व कामना के साथ।

अहा ! एक दिन पतियों का

मुझे प्राचीन काल के पतियों के बारे में ठीक से पता नहीं कि परिवार में उनकी क्या स्थिति थी ? अपनी पत्नी की दृष्टि में वे क्या थे ? लेकिन हाँ, सुनते अवश्य रहे हैं कि पति जी परमेश्वर हुआ करते थे। परमेश्वर तो पत्नियाँ अपने पति को आज भी यदा-कदा कहती सुनती मिलती हैं, पर जरा व्यंग्य विनोद भाव में।
सच तो यह है कि पतियों में वही पति पूज्यनीय है जो करोड़पति है। लखपति है, हजारपति है, यूँ सैकड़े वाला भी पति चल रहा है, अन्यथा सिर्फ पति तो पतित ही है, पत्नी की दृष्टि में। इस हकीकत को हर आधुनिक पति जानता है। इसीलिए येन-केन प्रकारेण हर पति कुछ बनना चाहता है बतर्ज ‘हर रंग कुछ कहना चाहता है’। कुछ नहीं तो करोड़ों पति के बीसी की पहेलियाँ और सवाल बूझ-बूझकर लखपति तो बन ही लिए। दस-पाँच हजार तक की हैसियत तो केबीसी ने हर पति की बना ही दी। धन्य है केबीसी और अमिताभजी जिन्होंने पतियों को सम्मान दिलाने के लिए उनका रुतबा ऊँचा उठाने के लिए ‘कौन बनेगा करोड़पति द्वितीऽऽय’ चला था।

आज हर भारतीय पत्नी सिर्फ अपने पति को केबीसी द्वितीय की तरफ ठेलती नजर आती है। यहाँ पर मुझे याद आ गया है कि महाभारत काल में भी पतियों की हालत कुछ आज जैसी ही थी। तभी सुदामा की पत्नी ने सिर्फ पति हो रहे सुदामा को भी एक दिन केबीसी अर्थात् ‘कृष्ण बिहारी श्याम’ के पास भेज दिया था-द्वारका जाहु जू-द्वारका जाहुजू’ की रट लगा कर। और अब जब वे वापस लौटे तो करोड़पति होकर। उस समय सुदामा अपने घर में कई नई औरतों-दासियों और स्वयं अपनी पत्नी को देखकर भ्रमित थे कि कौन बनेगी उनकी पत्नी ? करोड़पति होने पर स्वरूप ही ही बदल गए थे सभी को नए सिरे से पति होने और पत्नी होने का बोध हो रहा था।

करोड़पति होकर पति सचमुच कइयों के लिए पति-स्वामी हो जाता है। करोड़पति की महिमा ही न्यारी हो जाती है। यह ज्ञान करोड़पति होकर ही उत्पन्न होता है। बिना करोड़पति हुए तो दुःख से मुठभेड़ होती रहती है, रोजाना की हाय-हाय और किल-किल झेलकर जो पति सालभर तक सरवाइव कर जाता है, उन्हें बोनस के रूप में एक दिन जरूर मिलता है जब पत्नी सचमुच उसको परमेश्वर समझकर पूजती है।

करवाचौथ के इस दिन का हर पति को इंतजार रहता है। निकम्मे, निठल्ले से निठल्ला, शराबी, व्याभिचारी भी उस दिन पत्नी के लिए देवता नजर आता है। अपनी पूजा श्रद्धा के साथ होती देख पति वर्षभर की पीड़ाएँ-क्लेश भूल जाता है।
सचमुच ही हमारे देश की पत्नियाँ महान् हैं कि अहा, एक दिन तो पतियों यानी सिर्फ पतियों के लिए आरक्षित किए हुए हैं और करोड़पतियों की ही क्रेडर का सम्मान देती हैं।

अच्छा भाई, अब कलम रख दूँ। बता दूँ। कि मैं भी सिर्फ पति हूँ। आज वर्षभर बाद प्रसन्न हूँ कि आज करवा चौथ है। चलूँ मैं भी समय पर पुज लूँ अन्यथा जैसी पूजा और पूजाई होती है, आप सिर्फ पतियों को तो पता ही है।

2
जयराम सिंह जिन्दाबाद


अपने समय का सर्वाधिक कुख्यात गुण्डा और माफिया सरगना जो विनाशवादी पार्टी का मुखिया बन चुका था, का बड़ा नाम सुना था। अखबारों में देखा भी। कभी-कभी कैसेट भी बजा करता है ‘हमारा प्यारा जयराम सिंह विनाशवादी जयरामसिंह।’
लेकिन विनाशवादी पार्टी के मुखिया जयराम सिंह जी को निकट से देखने का सौभाग्य ही नहीं मिलता। पर शायद आज मेरे बन्द भाग्य के कपाट खुलने वाले थे। मेरे ही मुहल्ले में जयराम सिंह आने वाले थे।
मुहल्ले के लोग उनका अभिवादन करने जा रहे थे। जयराम सिंह जी की रक्षा-सुरक्षा हेतु पूरा पुलिस विभाग तैनात था। ऐसा इस कारण से था कि चुनाव में उन्होंने अभूतपूर्व जीत हासिल की थी। मुहल्ले के लोगों ने शत-प्रतिशत उन्हें ही वोट दिया था। रिकार्ड मतों से जीत हासिल कर उन्होंने इतिहास ही बदल डाला। एक इतिहास पुरुष के रूप में मुहल्ले के लोगों द्वारा उनका सामूहिक अभिनन्दन होना था।

इसके लिए मुहल्ले के एक हिस्से में खाली पड़े मैदान में भव्य और ऊँचा मंच बनाया गया था, ताकि दर्शनों के लिए कोई भी दुःखी न हो सके।
मैंने काफी सोचा कि आखिर उनका अभिनन्दन क्यों होने जा रहा है ? ऐसा उन्होंने कुछ किया ही क्या ? रिकार्ड मतों से तो मतदाताओं न उन्हें जिताया तो स्वयं जयराम सिंह को मतदाताओं का अभिनन्दन करना चाहिए। हाँ, इस बात के लिए तो वे अभिनन्दनीय हो सकते हैं कि उनके रहते इलाके में कोई जयराम नहीं हो सकता। छोटा-मोटा भी नहीं। वे जयराम सिंह जो ठहरे। खैर-मुझे क्या ? मेरा न किसी ने मशवरा माँगा और न ही पूछा तो मुझे क्या, अभिनन्दन जयराम का हो या किसी क्राइम का। तभी अचानक एक काली कार से क्राइम ओह सॉरी जयराम सिंह अपने काले काले कमान्डरों के साथ उतरे। उछलकर मंच पर जा डँटे। मंच पर अपने काले कुरूप चेहरे के बीच होठों को खींचकर मुस्कराने लगे। यथानाम तथा रूप। उन्हें मैं इतना निकट से देखकर कृतकृत्य हो गया।

मंच पर आसीन उनके चारों ओर बंदूकें लेकर भद्दी-भद्दी शक्लों वाले उनके सहायक अंगरक्षक आदि खड़े हो गये। उनकी जयकारा बोलने लगे। जयराम जिंदाबाद-जयराम जिंदाबाद। तभी मंच के नीचे अभिनन्दन के लिए जुटे मुहल्ले के लोग चीख उठे-जिंदाबाद-जिंदाबाद। इसी के साथ जयराम को फूल मालाएँ पहनाने की प्रायोजित प्रतिद्वन्द्विता आरम्भ हो गई। मेरी उत्सुकता तथा उनके दर्शन की अभिलाषा का भी ‘द एण्ड’ हो गया।

3
सच, नुमायश की कसम !


शहर में नुमायश फिर लग गई है। हर साल की तरह लोग खुश हैं। खुश क्यों हैं ? सभी के अपने-अपने कारण हैं। मैं भी खुश हूँ। मेरा अपना कारण हैं। दरअसल, मैं तो वर्षों से खुश हो रहा हूँ, इसी तरह। हालाँकि आदमी को आज के माहौल में खुशी मयस्सर नहीं। लेकिन हर आदमी अगर जीना चाहता है, तो खुशी का कोई न कोई बहाना ढूँढ़ ही लेता है। मैंने भी यही किया है कम से कम साल में एक बार कुछ दिनों तो खुश रहता हूँ। इसके लिए मैं नुमायश का कृतज्ञ हूँ।
नुमायश आ गई। मैं नुमायश में आ गया हूँ। नुमायश में आकर मैं ‘रेडियोस्टाल’ को बड़ी हसरत और कृतज्ञता से देखता हूँ। यहाँ फरमायशी गीत सजते-प्रसारित होते रहते हैं। कभी-कभी यहाँ ‘अपनी पसन्द’ से भी गाने प्रसारित होते हैं। इसी स्थल से खोये-पाये की खबरें प्रसारित होती हैं। इन्तिजार करने-कराने वालों के नाम प्रसारित होते हैं। मैं यहाँ दो रुपया देता हूँ। स्टाल से माइक पर एनाउन्सर कहता है कि मैं फलाँ का इन्तिजार कर रहा हूँ। वह फलाँ जहाँ कहीं भी हो, मुझसे ‘फौव्वारे’ पर मिले।

पर सच यह है कि मुझे किसी का इन्तिजार नहीं होता। मेरे पास कोई आता भी नहीं। मैं यूँ ही फौव्वारे पर बैठ जाता हूँ, जैसे कि किसी की प्रतीक्षा में होऊँ। मेरे बारे में होने वाला यह प्रसारण इतना खास होता है कि बजते हुए गीत को बीच में रोककर किया जाता है। मैं सुनता हूँ फौव्वारे वाले चौक में खड़ा होकर। फौव्वारे पर खड़ा-खड़ा अपनी प्रायोजित-प्रतीक्षा का लुफ्त लेता हूँ। दो रुपये में सारे स्पीकर गूँजते हैं। शहर भर सुनता है कि मैं प्रतीक्षारत हूँ...मैं नुमायश में हूँ.... कोई मुझसे मिलने आ रहा है मगर फौव्वारे का चौक गवाह है कि वास्तव में कोई नहीं आता है। लेकिन स्पीकर दो-तीन बार तहलका मचाता है कि सावधान कोई आ रहा है नुमायश में मुझसे मिलने।
जब मैं फौव्वारे पर होता हूँ, तब वहाँ अन्य कई लोग भी खड़े और कुछ बैठे होते हैं। शायद वे लोग भी मेरी तरह ‘फर्जी प्रतीक्षा’ कर रहे होते हैं। फौव्वारे की धार देखते रहते हैं। मूँगफली कुटकते रहते हैं। और हम सब प्रायोजित-प्रतीक्षा कार्यक्रम का आनन्द लेते रहते हैं।

अपने-प्रायोजित-प्रतीक्षा कार्यक्रम पर जब मैं विचार करता हूँ तो लगता है कि नुमायश में सचमुच ही इन्तिजार के सिवा कुछ भी नहीं है। सारे प्रोग्राम दर्शकों को देर रात तक इन्तिजार कराते हैं। फिर वे जब बोगस निकलते हैं तो दर्शक झींकते कोसते पंडाल कार्यक्रमों के आयोजकों को गालियां देते हुए अगले साल बेहतर प्रोग्रामों के होने की आशा में उसी पल से प्रतीक्षारत हो जाते हैं। मंहगाई के मारे नुमायश में दुकानों में बैठे दुकानदार ग्राहकों की प्रतीक्षा में रहते हैं। हर तरफ नुमायश में इन्तिजार का एवरग्रीन वातावरण लगता है।
मैं हर साल नुमायश का इन्तिजार करता हूँ, ताकि वहाँ जा कर किसी का यूँ ही इन्तिजार कर सकूँ और आनन्दित हो सकूँ। मैं वहाँ फर्जी इन्तिजार इसलिए भी करता हूँ ताकि सारा शहर जान ले कि मैं हूँ, जो नुमायश में हूँ। मैंने नुमायश को नजरअंदाज नहीं किया है। उसकी परवाह की है। साथ ही मैं अपने अजीजों से कह सकूँ कि तुम लोग प्यारे दिल्ली, लखनऊ, आगरा और पहलगाँव में रहे और मैंने यहाँ नुमायश भर इन्तिजार किया। सच ! नुमायश की कसम।

4
अरमान जी का फरमान


आला कमान की इनायत पर अरमान जी जैसे ही पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बने वैसे ही उन्होंने ऐलान कर दिया कि प्रदेश की सरकार गिराकर ही दम लेंगे। उनके ऐलान से पार्टी के कार्यकर्ताओं को लगा जैसे कि सरकार गिराने के लिए अरमान जी का अध्यक्ष के रूप में अवतार हुआ हो। हालाँकि दूसरे विरोधी दल भी सरकार गिराने को बेचैन दिखाई दिए। एक दल के नेता ने तो अविश्वास प्रस्ताव लाने की भी घोषणा कर दी।
लेकिन इस अविश्वास पर किसी को विश्वास नहीं हुआ। सो कोई समर्थन हेतु राजी नहीं हुआ। सच बात तो यह कि कोई भी दल किसी के अविश्वास प्रस्ताव पर विश्वास नहीं कर सका लिहाजा अरमान जी ने सरकार गिराने के मामले में स्पष्ट कहा कि अपने ही बूते पर सरकार गिरायेंगे।

उधर प्रदेश की सरकार की बागडोर सम्हालते ही अरमान जी ने सबसे पहले यह किया कि अपने गृहजनपद चले गये। दरअसल, अन्य लोगों की भाँति उनकी भी दिली तमन्ना थी कि वे भी प्रथम बार अपने गृह जनपद जायँ, ताकि उनका जोरदार स्वागत अभिनन्दन हो सके।
अरमान जी ने फरमान जारी कर दिया कि अपने गृहजनपद से ही पार्टी की मजबूती बढ़ाने का बिगुल बजायेंगे। अपने नगर से यात्रा करते हुए प्रदेश की राजधानी पहुँचेंगे। क्योंकि राजनीति में सत्ता परिवर्तन हेतु यात्राएँ बड़ा महत्त्व रखती रही है। रथयात्रा, साइकिल यात्रा, पद यात्रा या अन्य कोई यात्रा नेता अपनी सुविधानुसार चुन लेता है। अभी हाल ही में जैसे उमा भरती ने तिरंगा यात्रा की थी। यह बात दूसरी है कि महाराष्ट्र में इस यात्रा के बाद भी भाजपा को मुँह की खानी पड़ी। अरमान जी को पक्का विश्वास है कि यात्रा के जरिए राजधानी पहुँचते-पहुँचते उनकी पार्टी इतनी मजबूत हो जायेगी कि सरकार स्वतः गिर जायेगी। अपने अविश्वास प्रस्ताव के लिए उन्हें किसी भी दल को विश्वास में लेने की जरूरत नहीं होगी। सरकार गिराने का श्रेय वे स्वयं ही लेना चाहते है।

अरमान जी ने तय कर लिया है कि अगर जरूरत पड़ी तो निर्दलीय सहयोग लेंगे। यही सर्वश्रेष्ठ है। सरकार बनाने-गिराने में निर्दलियों की महिमा-महत्ता जगप्रसिद्ध है। निर्दलीय निर्दलीय होकर भी सर्वदलीय या फिर हर दलीय होते हैं। कोई भी दल हो निर्दलीय सबके भले के लिए तैयार रहता है। हर किसी में घुलनशील है वह हरिश्चन्द्र की तरह अपने आपको विक्रय हेतु भी तैयार रखता है। वे बड़े परमार्थी हैं, इस राजनीति में अर्थ को ही परम मानने के कारण उन्हें कभी भी धता बताकर नष्ट भी किया जा सकता है।
सो अरमान जी स्वयं में आश्वस्त हैं। ‘मन में है विश्वास हम होंगे कामयाब।’ को गुनगुनाते हुए उन्होंने पार्टी को सत्ता में ले जाने का ऐलान-फरमान कर दिया है।

5
गर्मी का एहसास


जहाँ सभी लोग रिकार्ड बनाने की जुगत में रहते हैं, वहीं अब मौसम का मिजाज भी रिकार्ड तोड़ने पर आमादा होता जा रहा है। अब हर मौसम अपना ही पिछला रिकार्ड तोड़ने को तैयार रहता है। मसलन गर्मी ने अपना रिकार्ड बनाना शुरू कर दिया है। बढ़ते-बढ़ते पिछला रिकार्ड नहीं तोड़ा है तो अब तोड़ देगी। हर तरफ हाहाकार मचा हुआ है। पशु-पक्षी, इंसान, पेड़ पौधे तक बेहाल हैं। मुझे गर्मी का रिकार्ड टूटते नजर यूँ आ रहा है कि एक वकील साहब को अपना काला कोट उतारे कन्धे पर लटकाये देखा। वैसे यह वकील साहब सुबह से ही कोट पहन लेते हैं। सब्जी लेने, आटा पिसाने, स्कूल में बच्चों को छोड़ने और हर जगह कोट पहनकर ही जाते हैं। हालाँकि यह जरूरी नहीं कि वकील साहब के कोट उतारने से गर्मी का मान बढ़ा। वह अपने फिल्मों वाले गरम-धरम (धर्मेन्द्र) फिल्मों में प्रायः कन्धे पर कोट लटकाए रहते हैं पहाड़ पर गाना भी गाते हैं-‘आज मौसम बड़ा बेईमान है...’ मौसम बेईमान से मतलब उनका बहुत गर्मी से ही रहता होगा वरना कोट क्यों उतारकर कन्धे पर डालते। वैसे वे गरम-धरम कहे जाते हैं सो उन्हें हर मौसम गरम लगे तो लगे ही इसमें कोई कुछ नहीं कर सकता।

गर्मी में रिकार्ड टूटे या नहीं, कुछ चीजें जरूर टूटकर गायब हो जाती हैं, बड़ी मुश्किल हो जाती है, इस बार नहीं है तो क्या रेजगारी हमेशा गर्मी में ही गायब होती रही है। डाक विभाग में छोटे टिकट, पोस्टकार्ड गायब हो जाते हैं। मज़दूर नहीं मिलते। मिलते हैं तो मजदूरी सुनकर हाथ-पैर ठंडे हो जाते हैं। नलों से पानी नदारद हो जाता है। ‘बूँद-बूँद से गागर भरती’ वाली कहावत दिखाई देने लगती है। बिजली चपत लगाकर आँख-मिचौनी खेलती नजर आती है। एक लीटर मिट्टी के तेल के लिये चार लीटर पसीना निकल जाता है। ऐसे में तब वाकई लगता है कि पारा पचास तक पहुँच गया है।
इस ताप में सब्जी बेचते कुँजड़े से पूछा, ‘कहो भाई, कैसी गर्मी पड़ रही है ?’ वह कहता है कि भइया गर्मी में गर्मी तो पड़गी ही यहाँ तो धूप और गर्मी में ही जीवन कटता है। कठोर परिश्रम और पेट पालने की चिन्ताग्नि से बाहर की गर्मी का एहसास नहीं होता। गर्मी तो बैठे ठाले लोगों को कूलर में लगती है, हम जैसे लोगों को गर्मी का गम नहीं होता। खुली-खिली धूप और सनसनाती हवा में आनन्द ही आनन्द है। ऐसे ही गर्मी में रिक्शा खींच रहे इन्सान को गर्मी नहीं लगती ! गर्मी तब लगती है जब पेट भरा होता है....जेब भरी होती है...यहाँ तो पेट की आग ही इतनी गरम होती है कि कुछ समय के लिये आई गर्मी की तरफ ध्यान ही नहीं जाता।
सच बात है कि गर्मी जैसे मौसम एहसासों के नजदीक अधिक है। भूख, गरीबी, विवशता की धधकती आग जहाँ है, गर्मी का एहसास भला वहाँ कहाँ है ?
      

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